September 15, 2013

यह दिन छोटा क्यों?

संयोग वियोग दिन रात की भांति परस्पर गुंथे रहते हैं.लेकिन 
दिन बड़ा हो,और बड़ा हो-यह इच्छा अदम्य है,बढ़ती जाती है ………।

  "एक  संध्या 
  गंगा के किनारे
  मै बैठा था,
  देखा :
  किसी ने 
  किसी आशा में 
  एक दीप जला कर 
  जल पर तैरा दिया।
  निकट ही 
  किसी और ने भी
  कुछ कुम्हलाये फूल 
  जल में प्रवाहित किये।
  गंगा की लहरों पर 
  जलते दिए के साथ 
  उन कुम्हलाये फूलो को
  कुछ दूर 
  साथ-साथ बहते
  मैंने देखा.तभी, 
  उस दीप की रोशनी में  
  कुछ फूल 
  परिचित से लगे!"










 

3 comments:

  1. ... kuchh phool parichit se lage... nice feel in the words.

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  2. So thanks.Adjustment with life breeds either emotional poetry or photo poetry!

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  3. Wat an ending..makes one pause for a moment and reflect back on your own life! :)

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